Saturday, September 12, 2015


कभी कभी कुछ ऐसे ही सीधे सीधे मन की किताब से फेसबुक तक















Sunday, April 26, 2015

अरे जरा सुनो




कभी कभी तुम (आप लिखने का मन नहीं किया) मुझे किसी स्कूल की नर्सरी की टीचर सी लगती हो. जिसकी क्लास में ये नन्हे नन्हे , रंग बिरंगे शब्द दिन भर धमा चोकड़ी मचाते रहते है. तुम भी दिन भर इन्हें अपनी मनमानी करने देती हो पर दिन ख़त्म होने के पहले टेबल के नीचे से तुम निकाल लेती हो एक छड़ी और झूठ मूठ का गुस्सा दिखाते हुए इन शब्दों को बोलती हो "चलो बैठो एक लाइन में नहीं तो पिटाई कर देंगे तुम्हारी" ये मासूम जानते है की तुम इनकी पिटाई कर ही नहीं सकती फिर भी तुम्हारे झूठ मूठ के गुस्से के पीछे छिपे प्यार की खातिर ये नन्हे शैतान एक कतार में बैठ कर गाने लगते है कोई प्रार्थना जिसके सारे बोल भी इन्हें नहीं पता/ उसमे से भी कुछ मस्तीखोर एक आँख खोल कर आसपास का मुआइना  करने लगते है. तुम उस प्रार्थना की धुन में रच देती हो कोई नया गीत , कहानी या कविता इन  शब्दों की मासूमियत  बरकरार रखते हुए. तुम्हारे लिखे ये मस्तीखोर कुछ कुछ तुम्हारे जैसे ही है शायद. इन मासूम शब्दों को हज़ार दुआए.

Saturday, February 8, 2014

हथेलियाँ

कुछ शहर अलग कुछ डगर अलग
कुछ रीति अलग कुछ रिवाज़ अलग
कुछ गलिया अलग कुछ मोहल्ले अलग
कुछ तौर अलग कुछ तरीके अलग
पर एक चीज़ हमेशा एक सी हर जगह
मंदिर के अन्दर लम्बवत और मंदिर के बाहर क्षेतीज हथेलियाँ !


Tuesday, January 14, 2014

अब तो बंद भी कर दो रेत पर मेरा नाम लिखना

अब तो बंद भी कर दो रेत पर मेरा नाम लिखना. तुम सोचती हो लहरे आकर मिटा ही तो देगी कुछ देर बाद. लेकिन ऐसा नहीं है वो लहरे अपने साथ ले जाती है मेरे नाम की छाप और बन कर बादल जब बरसती है मेरे शहर में तो हर एक बूँद से तुम मेरा नाम पुकारती सुनाई देती हो. मै पागल सा हो जाता हु अक्सर ऐसी बारिशो में. इसलिए कहता हु अब तो बंद भी कर दो रेत पर मेरा नाम लिखना. 

Saturday, June 15, 2013

पिता


आवाज पिता की भी रही होगी कोमल कभी
पर समय के साथ  न जाने कितनी बार
रह गए होंगे शब्द अटके रुंधे गले के भीतर कही.
शब्द वात्सल्य के आ न पाए होंगे कंठ से बाहर न जाने कितनी बार.
और इन्ही शब्दों के बार बार अंतर घर्षण से पिता की आवाज होती
गई होगी कठोर कठोर समय के साथ .

चेहरा पिता का भी रहा होगा मासूम कभी
पर शायद बचपन छोटा कर दिया होगा जिम्मेदारियों ने
और तरुणाई छु कर भाग गई होगी कभी.
संसार ने दे दी होगी अनुभव की खरोंचे पिता के चहरे पर
और पिता का चेहरा होता गया होगा प्रोढ़ प्रोढ़ समय के साथ.

हथेलिया पिता की भी नर्म रही होगी कभी
जब उठाए होंगे हथोड़े और औजार उन्होंने
उन नर्म हथेलियों पर पड़ गए होंगे फफोले
जिनके जीवाश्म आज भी मौजूद है
पिता भी जान न पाए होंगे की कब हथेलिया बदल गई होंगी

कपास से रेगमाल में समय के साथ. 

हक़

उसकी हथेलियों पर मेरी ही हथेलियों का हक था

ये तो दुनिया थी जिसे मेरी किस्मत पर शक था 

Wednesday, May 8, 2013

संयोग


अजीब सा संयोग था उसे पढ़ना कुछ ख़ास अच्छा नहीं लगता था . थोडा बहुत कभी कभार पढ़ लेती थी. और मै था की लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा था. अगर कुछ मन के भीतर चल रहा हो और न लिख पाऊ तो ऐसी तकलीफ होती थी जैसे किसी अस्थमा के रोगी को सांस न लेने पर होती होगी. हां पर एक बात थी उसे सुनना बहुत अच्छा लगता था . दार्शनिक अंदाज में कहती थी” “लिखे हुए शब्द मुझे मृत लगते है जैसे सफ़ेद कफ़न पर लिटा दिए गए हो शव की भाँती और जलाने के लिए ले जाने के पहले लपेट लेंगे उन सबको इस कफ़न में. पर जब तुम्हारे मुह से सुनती हु तुम्हारा लिखा तो उन सभी शब्दों की आत्मा को महसूस कर सकती हु.” “ तुम्हे नहीं पता जब तुमने बारिश पर कविता कही थी तो मेरे मन की मिट्टी से सौंधी सौंधी सौंधी गंध उठने लगी थी और उसने मुझे भीतर तक महका दिया था”  “मै आश्चर्य चकित थी की मै मशीनी युग की लड़की जिसके मन में खेतो की उर्वरक मिट्टी नहीं थी बल्कि मरुभूमि थी. उस मरुभूमि को भी तुम्हारी बारिश की कविता ने उर्वरा कर दिया था.” उस मरुभूमि के भीतर गहरे दबे बीज में अंकुरण हो गया था और नागफनी के पौधों के संग उग आया एक प्रेम का पौधा जिसमे सपनो के फूल लगे थे और कही उन फूलो की पत्तियों में मुझे तुम्हारा नाम नजर आने लगा.”