Wednesday, May 8, 2013

संयोग


अजीब सा संयोग था उसे पढ़ना कुछ ख़ास अच्छा नहीं लगता था . थोडा बहुत कभी कभार पढ़ लेती थी. और मै था की लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा था. अगर कुछ मन के भीतर चल रहा हो और न लिख पाऊ तो ऐसी तकलीफ होती थी जैसे किसी अस्थमा के रोगी को सांस न लेने पर होती होगी. हां पर एक बात थी उसे सुनना बहुत अच्छा लगता था . दार्शनिक अंदाज में कहती थी” “लिखे हुए शब्द मुझे मृत लगते है जैसे सफ़ेद कफ़न पर लिटा दिए गए हो शव की भाँती और जलाने के लिए ले जाने के पहले लपेट लेंगे उन सबको इस कफ़न में. पर जब तुम्हारे मुह से सुनती हु तुम्हारा लिखा तो उन सभी शब्दों की आत्मा को महसूस कर सकती हु.” “ तुम्हे नहीं पता जब तुमने बारिश पर कविता कही थी तो मेरे मन की मिट्टी से सौंधी सौंधी सौंधी गंध उठने लगी थी और उसने मुझे भीतर तक महका दिया था”  “मै आश्चर्य चकित थी की मै मशीनी युग की लड़की जिसके मन में खेतो की उर्वरक मिट्टी नहीं थी बल्कि मरुभूमि थी. उस मरुभूमि को भी तुम्हारी बारिश की कविता ने उर्वरा कर दिया था.” उस मरुभूमि के भीतर गहरे दबे बीज में अंकुरण हो गया था और नागफनी के पौधों के संग उग आया एक प्रेम का पौधा जिसमे सपनो के फूल लगे थे और कही उन फूलो की पत्तियों में मुझे तुम्हारा नाम नजर आने लगा.”