Saturday, June 15, 2013

पिता


आवाज पिता की भी रही होगी कोमल कभी
पर समय के साथ  न जाने कितनी बार
रह गए होंगे शब्द अटके रुंधे गले के भीतर कही.
शब्द वात्सल्य के आ न पाए होंगे कंठ से बाहर न जाने कितनी बार.
और इन्ही शब्दों के बार बार अंतर घर्षण से पिता की आवाज होती
गई होगी कठोर कठोर समय के साथ .

चेहरा पिता का भी रहा होगा मासूम कभी
पर शायद बचपन छोटा कर दिया होगा जिम्मेदारियों ने
और तरुणाई छु कर भाग गई होगी कभी.
संसार ने दे दी होगी अनुभव की खरोंचे पिता के चहरे पर
और पिता का चेहरा होता गया होगा प्रोढ़ प्रोढ़ समय के साथ.

हथेलिया पिता की भी नर्म रही होगी कभी
जब उठाए होंगे हथोड़े और औजार उन्होंने
उन नर्म हथेलियों पर पड़ गए होंगे फफोले
जिनके जीवाश्म आज भी मौजूद है
पिता भी जान न पाए होंगे की कब हथेलिया बदल गई होंगी

कपास से रेगमाल में समय के साथ. 

हक़

उसकी हथेलियों पर मेरी ही हथेलियों का हक था

ये तो दुनिया थी जिसे मेरी किस्मत पर शक था